Saturday, December 26, 2009

शब्द ब्रह्म है शब्द राक्षस है

शब्द अनंत शक्तिमान होते है यदि शब्द कूटनीति के है, साम दाम दण्ड भेद से प्रेरित है तो इतिहास गवाह है उसने तीर तलवारो की झंकार से लेकर परमाणु बमो की टंकार सुनी है मनुष्य तथा मनुष्यता का खून बहते देखा है अहंकार से उत्पन्न साम दाम दण्ड भेद की कूटनीति मानवता के लिए दींमक का कार्य करती है यह जिस मानव धर्म तथा प्रकृति के वृक्ष पर बैठती है उसे ही खाती रहती है अज्ञानियो तथा दुर्बुद्धियो के शब्द मानव समाज तथा पर्यावरण में अनेक दरारे डालते हुए पतन के अनन्त मार्ग खोल देते हैशब्द से गाली भी बनती है शब्द से प्यार भी छ्लकता है शब्द से संवाद भी होता है विवाद भी। शब्दो से किसी का अनादर करने,किसी को पराजित करने ,स्वयं के संचित ज्ञान की श्रेष्ठता अन्य पर साबित करने,अपनी जाति,प्रजाति,धर्म्,संस्कृति,देश की श्रेष्ठता अन्य पर साबित करने के प्रयास शब्दो को राक्षस बना देते है और मानव समाज तथा पर्यावरण में छुपी अनन्त ऊर्जा को नष्ट करते हुए उसके सदुपयोग की संभावनाओ को क्षीणतम कर देते है।यदि शब्द परम ज्ञानियो के है तो वे मानव समाज तथा पर्यावरण को झंकृत करते है जीव तथा प्रकृति वहां नृत्य मुद्रा में ,आनंद मुद्रा में ,कर्मशील हो उठते है। जब लगन्[भक्ति] तथा समझ्[ज्ञान] के साथ सत्य की खोज के लिए संवाद होता है तो सत्य के अनेको अबूझे रहस्य प्रकट होने लगते है मानवता की पीडा दूर करने का भाव जब शब्दो की आत्मा बन जाते है तो वे ब्रह्म स्वरूप हो जाते है तथा ईसा, बुद्ध्,महावीर्,नानक कबीर, गांधी जैसे कर्मयोगियो के उद्वविकास का मार्ग प्रशस्त करते है।ब्रह्म स्वरूप हुए शब्द मानव समाज तथा पर्यावरण में अंतर्निहित अनंत ऊर्जा को सर्वार्थ के लिए उपयोग करने के अनन्त मार्ग खोल देते है
अत: साधको शब्दों को ब्रह्म बनाओ शब्दों को राक्षस न बनने देने के अहिंसक उपायों को खोजो।

सत्य सदा मध्य मे है एक मिथक है पाखंड है

सत्य मध्य मे है यह बहुत बडा झूठ है जो प्रायः बोला जाता है सत्य तो अनन्त है सर्वत्र व्याप्त है अनन्त जिज्ञासा के साथ सदैव पृश्नकर्ता बने रह कर उसका बोध किया जा सकता है। सत्य बोध से झूठ ,अज्ञान, का उच्छेदन किया जा सकता है सत्यबोध से, सत्य की खोज तथा परमात्मा की खोज की प्रक्रिया में उपजने वाले पाखन्ड का भी पर्दाफाश किया जा सकता है। सत्य को मध्य में ढूढ्ना दो अतिवादी पक्षो के मध्य दलाली है जो दो पक्षो के मध्य संवाद कायम करा स्वहित साधती है दो अतिवादी अंधे पक्षो के मध्य काना सम्वाद कराता है विश्व राजनीति में अमेरिका काने की भूमिका बखूबी निभा रहा है। राजनीति,धर्म तथा अर्थ के क्षेत्र एसे दलालो से भरे हुए है। सत्य को मध्य में ढूढ्ने की कवायद एसे सम्वाद को जन्म देती है जो पुनः वाद बनने के लिये अभिशप्त होता है अतः मनुष्य तथा समाज में कोई गुणात्मक परिवर्तन नही आता अपितु तथ्यात्मक परिवर्तन आता है अज्ञान के कारण मनुष्य तथा समाज उसे ही पर्याप्त समझ लेते है और अंतत: इतिहास अपने को दोहराकर सत्य को मध्य में खोजने की कवायद को निरर्थक सिद्ध कर देता है ।

Saturday, December 19, 2009

ज्ञान और परिणाम

विवेकानन्द जैसे महान विद्वान ने ज्ञान को जनसाधारण के लिये उपयोगी तथा मानवता की मुक्ति के लिए व्यावहारिक बनाने के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन लगा दिया सच्चे ज्ञानी स्वतःस्फूर्त रुप से ज्ञान का स्वार्थ के लिए नही अपितु सर्वार्थ के लिए व्यावहारिक उपयोग करते ही है और जो व्यावहारिक नही होता उसे त्याग देते हैझूठे ज्ञानी ,सच्चे ज्ञान का मुखौटा लगाकर, उसकी खाल ओढ कर, अपने तथा अपने अनुनाइयो की स्वार्थ साधना मे लगे रहते है उन्हे मानवता की समस्याओ के व्यावहारिक समाधान खोजने में उबकाइयां आती है झूठे ध्यान, झूठी समाधि, झूठे परमानन्द में लीन होने की झूठी दिव्य अनुभूतियो के साथ सच्ची स्वार्थ साधना में लीन रहते है सच्चे ज्ञानियो के कार्य मानवता की मुक्ति से अभिप्रेत होते है तथा वैसे ही परिणाम भी देते है । झूठे ज्ञानियो के कार्य मानवता की मुक्ति की बात भर करते है परिणाम उल्टा होता है मानवता की समस्याओ मे उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है और उनके तथा उनके अनुनाइयो का धनबल सत्ताबल तथा झूठा धर्मबल[पंथबल] बढता जाता है धर्म, अर्थ तथा राजनीति पर एसे ही झूठे ज्ञानियो का वर्चस्व है मनुष्य,समाज तथा पर्यावरण का निरंतर बढता नकारात्मक व्यवहार इस बात का स्वत:सिद्ध प्रमाण है ।

संवाद

अगस्त 10th, 2009 मनोज भारती
महर्षि रमण से किसी ने पूछा कि सत्य को जानने के लिए मैं क्या सीखूं ? श्री रमण ने कहा जो जानते हो उसे भूल जाओ । यह उत्तर बहुत अर्थपूर्ण है । मनुष्य का मन बाहर से संस्कार और शिक्षाएं लेकर एक कारागृह बन जाता है। बाह्य प्रभावों की धूल में दबकर उसकी स्वयं की दर्पण जैसी निर्मलता ढक जाती है । जैसे किसी झील पर कोई आवृत्त हो जाए और सूर्य या चंद्रमा का प्रतिबिम्ब उसमें न बन सके । ऐसे ही मन भी बाहर के सीखे गए ज्ञान से इतना आवृत्त हो जाता है कि सत्य का प्रतिफलन उसमें नहीं हो पाता । ऐसे मन के द्वार और झरोखे बंद हो जाते हैं । वह अपनी ही क्षुद्रता में सीमित हो जाता है , और विराट के संपर्क से वंचित । इस भांति बंद मन ही बंधन है । सत्य के सागर में जिन्हें संचरण करना है, उन्हें मन को सीखे हुए किसी भी खूंटे से बांधने का कोई उपाय नहीं है । तट से बंधे होना और साथ ही सागर में प्रवेश कैसे संभव है ?
एक पुरानी कथा है - एक संन्यासी सूर्य निकलने के पूर्व ही नदी में स्नान करने उतरा, अभी अंधियारा था और भोर के अंतिम तारे डूबते थे । एक व्यक्ति नाव पर बैठकर पतवार चलाता था, किंतु नाव आगे नहीं बढ़ती थी । अंधरे के कारण उसे वह सांकल नहीं दिखती थी, जिससे नाव बंधी हुई थी । उसने चिल्ला कर संन्यासी से पूछा कि स्वामी जी इस नाव को क्या हो गया है। उस संन्यासी ने कहा, मित्र पहले खूंटे से बंधी उसकी सांकल को तो खोलो । मनुष्य जो भी बाहर से सीख लेता है, वह सीखा हुआ ज्ञान ही खूंटों की भांति उसके चित्त की नाव को अपने से बांध लेता है और आत्मा के सागर में उसका प्रवेश संभव नहीं हो पाता । जिसे परमात्मा के ज्ञान को पाना हो उसे बाहर से सीखे गए अपने ज्ञान को छोड़ देना होगा । इस अवस्था को दिव्य अज्ञान कह सकते हैं । इसे साध लेने से बड़ी और कोई साधना नहीं है ।
कुछ भी जानने का भाव अहंकार को पुष्ट करता है । इसीलिए उपनिषद् के ऋषियों ने कहा है कि जो कहे कि मैं जानता हूँ, तो जानना कि, वह नहीं जानता । जो जानते हैं, उनका तो मैं खो जाता है । बाहर से आया हुआ ज्ञान मैं को भरता है; भीतर से जगा हुआ ज्ञान उसे बहा ले जाता है । ज्ञान को पाने की विधि है कि सब ज्ञान को छोड़ दो । मैं को शून्य होने दो और चित्त को मौन । उस मौन और शून्यता में ही उसके दर्शन होते हैं जो कि सत्य है ।ज्ञान नहीं विचार सीखे जा सकते हैं । विचारों के संग्रह से ही ज्ञान का भ्रम पैदा हो जाता है । विचार कम हो सकते हैं; विचार ज्यादा भी हो सकते हैं । ज्ञान न तो कम होता है और न ज्यादा होता है । या तो ज्ञान होता है या अज्ञान होता है । यह भी स्मरण रहे कि विचार अज्ञान का अंग है । केवल अज्ञानी ही विचार करता है । ज्ञानी विचारता नहीं देखता है । जिसके आंख है, उसे दिखाई पड़ता है । वह सोचता नहीं कि द्वार कहां है, वह तो द्वार को देखता है। जिसके पास आंख नहीं, वह सोचता है और टटोलता है, विचार टटोलना मात्र है । वह आंख का नहीं अंधे होने का प्रमाण है । बुद्ध, महावीर या ईसा विचारक नहीं हैं । हमने सदा ही उन्हें द्रष्टा कहा है । वे जो भी जानते हैं, वह उनके चिंतन का परिणाम नहीं, उनके दर्शन की प्रतीति है । वे जो भी करते हैं, वह भी विचार का फल नहीं है । उनकी अंतर्दृष्टि की सहज निष्पत्ति है । इस सत्य को समझना बहुत आवश्यक है ।
विचारों का संग्रह कहीं भी नहीं ले जाता । सभी प्रकार के संग्रह दरिद्रता को मिटाते नहीं, दबाते हैं । इसी लिए जो सर्वाधिक दरिद्र होते हैं, संग्रह की इच्छा भी उनकी सर्वाधिक होती है । डायोजनीज ने सिकंदर को कहा था, मैं इतना समृद्ध हूँ कि मैं कुछ भी संग्रह नहीं करता । और तेरी दरिद्रता का अंत नहीं, क्योंकि इस पूरी पृथ्वी के साम्राज्य को पा लेने पर भी तुम संग्रह करोगे । इसी लिए जब सम्राटों को संग्रह में छिपी दरिद्रता के दर्शन हुए हैं, तो उन्होंने दरिद्रता में छिपे साम्राज्य को स्वीकार कर लिया । क्या मनुष्य का इतिहास ऐसे भिखारियों से परिचित नहीं, जिनसे सम्राट बड़े कभी नहीं होते । जो धन संग्रह के संबंध में सत्य है, वह सभी प्रकार के संग्रहों के लिए भी सत्य है । विचार संग्रह भी उसका अपवाद नहीं । बाह्य संपत्ति के संग्रह से जो धनी है; वह यदि दरिद्र है, तो शास्त्रों के शब्दों से जो ज्ञानी है, वह भी अज्ञानी ही है ।शास्त्र से नहीं, जब स्वयं से और जब शब्द से नहीं बल्कि अंतस से आलोक मिलता है, तभी ज्ञान का आविर्भाव होता है ।
ज्ञान का जन्म ध्यान से होता है । ध्यान का अर्थ है : विचार छोड़कर चेतना में प्रतिष्ठित हो जाना । विचारों के प्रवाह का नाम मन है । जो इन विचारों के प्रवाह को देखता है, उसका नाम चेतना है । विचार विषय है और चेतना विषयी । विचार दृश्य है, चेतना द्रष्टा । विचार जाने जाते हैं, चेतना जानती है । विचार बाहर से आते हैं, चेतना भीतर है । विचार पर है, चेतना स्व है । विचारों को छोड़ना है और चेतना में ठहरना है । सब धर्मों की साधना का सार यही है ।
विचार प्रवाह के सम्यक् निरीक्षण से तथा तटस्थ साक्षी भाव से मात्र उन्हें देखने से वे धीरे-धीरे क्षीण हो जाते हैं । जैसे कोई बिल्ली चूहे को पकड़ती हो तो पकड़ने के पूर्व उसकी तैयारी पर ध्यान दें । कितनी सजग और कितनी शांत, कितनी शिथिल और तैयार ! ऐसे ही स्वयं के भीतर विचार को पकड़ने के लिए होना पड़ता है । जैसे ही कोई विचार उठे, बिल्ली की भांति झपटें और उसे पकड़ लें । उसे उलटें-पलटें और उसका निरीक्षण करें । किंतु उसे सोचे नहीं, मात्र देंखें । और तब पाया जाता है कि वह देखते ही देखते वाष्पीभूत हो गया है। हाथ खाली और विचार विलीन हो जाता है । फिर शांत और सजग रहें । दूसरा विचार आएगा, उसके साथ भी यही करना । तीसरा आएगा, उसके साथ भी यही । इस प्रकार ध्यान का अभ्यास करना । जैसे-जैसे अभ्यास गहरा होता है, वैसे-वैसे बिल्ली बैठी रह जाती है और चूहे विलीन हो जाते हैं । चूहे जैसे बिल्ली से डरते हैं, विचार वैसे ही ध्यान से डरते हैं । बिल्ली जैसे चूहों की मृत्यु है, ध्यान वैसे ही विचारों की मृत्यु है ।
विचार की मृत्यु पर सत्य का दर्शन होता है । तब मात्र वही शेष रह जाता है- जो है । वह सत्य है । वही परमात्मा है । उसे जानने में ही मुक्ति है और दुख व अंधकार का अतिक्रमण है ।
(यह लेख ओशो देशना पर आधारित है।)
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स्वयं की मुक्ति की तृष्णा या भौतिक सुखो की प्राप्ति की तृष्णा
प्रेषक ब्रजेश ( 21 अगस्त, 2009 - 22:02 ) ।
अध्यात्म के मार्ग पर चलकर स्वहित की पूर्ति या भौतिक मार्ग पर चलकर स्वहित की पूर्ति या फिर भौतिकता तथा आध्यात्मिकता के मध्य सन्तुलन बनाते हुए स्वहितो की पूर्ति करने वाले लोग एक ही थैली के सिक्के है ये सभी सिक्के चमकदार है सदियो से बुद्धिमान अनुनाई इनका स्वहित में उपयोग करते आए है स्वयं की मुक्ति के आनन्द तथा भौतिक सुखो के आनन्द में डूबे रहे हैसमाज की मुक्ति, मानवता की मुक्ति, गरीबी से मुक्ति, भ्रष्टाचार से मुक्ति, अनुनाईयो को निहित स्वार्थो से मुक्ति दिलाने के प्रश्नो के उत्तर खोजने के नाम पर इन सभी मार्गो पर चलने वाले लोग या तो वैचारिक मृत्यु का वरण कर लेते है या मौन हो जाते है इन निरर्थक प्रश्नो पर ध्यान देकर अपने निहित स्वार्थो की पूर्ति में लगी ऊर्जा को कम नही करना चाहते या दुनियां ऐसे ही चलती है इस दर्शन में अटूट आस्था रखते है निहित स्वार्थो, महत्वकांक्षाओ से भरे एसे लोग सदैव मानवता पर बोझ रहे हैबुद्ध, ईसा, अशोक्,मार्क्स्,गांधी जैसे लोगो ने मनुष्य तथा समाज के लिए प्रखर चिन्तन मनन करते हुए नूतन संस्कृति निर्माण की कई सम्भावनाए दिखाई पर ईसा को सूली से गांधी को गोली तक समाज में विध्यमान कचरा प्रवृत्तियां नही बदलीमनुष्य की मुक्ति की बात बहुत कर ली अब मानवता की मुक्ति की बात करो साधको
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स्थितप्रज्ञ
प्रेषक मनोज भारती ( 21 अगस्त, 2009 - 22:18 ) ।
जो स्वयं में स्थित है,स्थितप्रज्ञवह न स्वयं की मुक्ति की कामना करताऔरन ही भौतिक सुखों की प्राप्ति की इच्छा रखतावह तोजीवन को आनंद से जीता हैऔर जोआनंद में है वह मुक्त है ।
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निष्क्रिय स्थितप्रज्ञ या कृष्ण सदृश सक्रिय स्थितप्रज्ञ
प्रेषक ब्रजेश ( 22 अगस्त, 2009 - 08:29 ) ।
किसी विचार, किसी भाव ,धारणा या प्राप्त ज्ञान का संरक्षण या पुनराव्रत्ति अपने पूर्ववर्तियो के द्वारा की गई गलतियो का दोहराव मात्र है सत्य अनंत है इसकी निरन्तर साधना की प्रक्रिया से मिलने वाला आनंद भी अनंत है सत्य की झलक मिलते ही आप अभय की ओर गमन करने लगते है तृष्णाओ से मुक्त होने लगते है और अनंत प्रज्ञा आपके अंदर आलोकित होने लगती है जो आपको स्वतःस्फूर्त अनंत सक्रियता के साथ जीवन का सर्वांगीण आनंद उठाने के लिए ऊर्जावान बनाए रखती है
सदियो से यह विश्व दोहराव या अच्छी पुनराव्रत्ति करने वाले लोगो से प्रेरित होता रहा है इसी कारण इतिहास अपने को दोहराता हैजिसे सत्य की झलक मात्र मिल जाती है वह धर्म और न्याय की स्थापना के लिए अर्जुन की तरह सक्रिय हो जाता है सत्य की खोज वैचारिक म्रत्यु नही अपितु धर्म की स्थापना हेतु अनंत प्रज्ञा को जाग्रत करती है


स्थितप्रज्ञ
प्रेषक मनोज भारती ( 22 अगस्त, 2009 - 09:36 ) ।
स्थितप्रज्ञ के साथ कृपया कोई विशेषण न लगाएँ ।अनुभूति ...


वैचारिक मृत्यु या जाग्रत अनन्त प्रज्ञा
प्रेषक ब्रजेश ( 22 अगस्त, 2009 - 17:14 ) ।
अनुभूति जो वैचारिक मृत्यु या विचारशून्यता लाकर मृत्यु सिखाए या फिर जो इससे ऊपर उठते हुए अधिकांश साधको के अंदर सुप्तावस्था में बैठी अनन्त प्रज्ञा को जाग्रत कर धर्म की स्थापना के लिये साधको को सक्रिय करे


साक्षी-भाव
प्रेषक मनोज भारती ( 22 अगस्त, 2009 - 18:53 ) ।
साक्षी भाव का दूसरा नाम विचार शून्यता है ।विचार शून्यता का मतलब जड़ता या मृत्यु नहीं है ।जब चेतना प्रज्ञा में स्थित होती है, तो वह निश्चल होती है ।और एक शौरगुल भरे मन से अधिक सजग होती है ।वहां जो भी ग्राह्य होता है वही अमृत है।वही धर्म है

मात्र धर्म की साधना या धर्म की स्थापना भी
प्रेषक ब्रजेश ( 22 अगस्त, 2009 - 19:29 ) ।
धर्म मात्र स्वार्थ के लिए या सर्वार्थ के लिए dharm का अर्थ जानना मात्र ही धर्म या उसका अर्थ बोध करते हुए उसकी स्थापना के लिए कर्मक्षेत्र में उतरना भी


स्व और पर का भेद नहीं असीम अनंत सत्ता का बोध
प्रेषक मनोज भारती ( 22 अगस्त, 2009 - 20:59 ) ।
साक्षी में, स्थितप्रज्ञता में स्व और पर का भेद नहीं रहता ।वहां अनंत सत्ता है । वहां सब संबंधित हैं । वहां असीम विस्तार है ।धर्म खाली शब्द नहीं जिसका कि किन्हीं दूसरे शब्दों में अर्थ बतलाया जा रहा है । जब आप उस अमृत दशा में होते हैं तो बोध ही होता, न कि मात्र शब्दों का खेल और आप इस अवस्था में जो भी कर्म करते हैं वह मानव कल्याण के लिए ही होता है ।

अमृत दशा में पहुंचा व्यक्ति कर्मयोगी हो जाता है
प्रेषक ब्रजेश ( 22 अगस्त, 2009 - 22:14 ) ।
बुद्ध्,महावीर्,ईसा,कबीर, नानक, मार्क्स्,आइंसटाइन्,गांधी जैसे महापुरुष कर्मयोगी थे समाज से जो भी लिया उसे परिष्क्रत कर समाज को जीवनपर्यंत वापस करते रहेस्थितप्रज्ञता और धर्म कोई स्थिर भाव या बोध नही,अपितु स्वतःस्फूर्त विकासमान बोध है जो दृश्य और अदृश्य या इससे भी परे जगत में व्याप्त अनंत सत्य की अनवरत खोज में सहायक है स्थितप्रज्ञता प्रज्ञा को अनंत ऊर्जा से भर चेतना को अनंत सक्रिय बना देती है और इस अवस्था मै पहुंचे व्यक्ति अनंत सत्य के अनेको रहस्यो को मनुष्य समाज पर्यावरण के हित में अनावरित करते है


कर्म साधन है और धर्म साध्य
प्रेषक मनोज भारती ( 22 अगस्त, 2009 - 22:58 ) ।
कर्मयोगी का अर्थ है : जो कर्म के द्वारा उस दशा (स्थितप्रज्ञता, धर्म में प्रतिष्ठा) को प्राप्त करता है । इस दशा को अन्य मार्गों से भी पाया जा सकता है । कर्म साधन है और धर्म, स्थितप्रज्ञता साध्य । ऐसा नहीं है कि जो व्यक्ति स्थितप्रज्ञ है, वह अकर्मण्य हो जाता है । बल्कि उसके कर्मों में तो एक असाधारणता होती है ।
हमें ऐसे स्थितप्रज्ञ व्यक्ति के कर्मों की असाधारणता दिखाई पड़ती है । लेकिन उन कर्मों के पीछे कितनी साधना और सजगता का जीवन है, यह हम नहीं देखते । यहीं से समझ का अभाव दिखाई पड़ता है । हम परिणाम (फल) को देखते हैं, लेकिन उसके पीछे की साधना (जड़) को अनदेखा कर देते हैं ।


स्थित्प्रज्ञता दिव्य चक्षु है
प्रेषक ब्रजेश ( 23 अगस्त, 2009 - 07:03 ) ।
तोता राम राम कहने से राम की महिमा नही जान जाता ठीक इसी प्रकार मात्र अनुभूति करके कोई स्थित प्रज्ञ नही हो जाता, स्थितप्रज्ञता की अनुभूति उस परम सत्य की अनंतता का ज्ञान प्राप्त करने का दिव्य चक्षु है जो धारणाओ के पिंजडे में बन्द तोता वाणी नही अपितु धर्म राजनीति मनुष्य समाज संस्कृति सभ्यता अर्थनीति आदि अनेको क्षेत्रो को भी आपके लिए पारदर्शी बना देने वाली अनुभूति हैइस अनुभूति रुपी दिव्य चक्षु के उत्पन्न होते ही चहुंओर व्याप्त पाखंड धूर्तताए,स्वार्थ वे सभी कितने ही मुखौटे क्यों न लगा ले, आपके अंतर्जगत ,बाह्य जगत कही भी अपने को छुपाने की सामर्थ्य खो बैठती है यह दिव्य चक्षु समग्र के जिस भाग पर भी दृष्टि डालता है वह भाग उसके सामने निर्वसन होने लगता है उसके समस्त मुखौटे उतर जाते है और वह भाग अपने सच्चे रुप में प्रकट हो जाता हैस्थितप्रज्ञता को प्राप्त व्यक्ति के अंदर मनुष्य तथा समाज के अंदर विध्यमान अंधविश्वाशो पाखंडो धूर्तताओ निहित स्वार्थो का उपचार करते हुए स्वतःस्फूर्त रूप से मनुष्य तथा समाज को धर्म की,न्याय की, स्थापना की ओर ले जाने की अपार सामर्थ्य होती है और वह इस अपार सामर्थ्य का स्वार्थ में नही सर्वार्थ के उपयोग के लिए कर्मक्षेत्र में उतरता ही है

स्थितप्रज्ञता और कर्मफल
प्रेषक मनोज भारती ( 24 अगस्त, 2009 - 19:10 ) ।
कोई भी अनुभूति स्थितप्रज्ञ नहीं होती । लेकिन स्थितप्रज्ञ पुरुष को जो अनुभुति होती है, वह स्वच्छ अंत:करण से होती है और ऐसी दृष्टि में निश्चित ही चीजों को उनके अंतरतम से भेद देने की शक्ति होती है और ऐसी दृष्टि हर चीज को निश्चित ही उघाड़ कर उसे उसके वास्तविक रूप में प्रस्तुत कर देती है ।प्रिय मित्र !!! आपका जोर कर्म पर है, मैं आपके भाव को समझ रहा हूँ । पर मैंने यह भी कहा कि एकमात्र कर्म ही धर्म प्रतिष्ठा, स्थितप्रज्ञता का मार्ग नहीं है, इसके अतिरिक्त भक्ति और ज्ञान के मार्ग भी हैं । लेकिन किसी भी पुरुष के लिए कर्म निश्चित रूप से जरूरी होता है । कोई भी व्यक्ति कर्म से बच नहीं सकता । सांस लेना, चलना,उठना, बैठना, पढ़ना, जैसे सामान्य कार्य ऐच्छिक या अनैच्छिक सभी कर्म हैं । कर्म का क्षेत्र विस्तृत है । किसी भी मार्ग से स्थितप्रज्ञ हुए व्यक्ति के लिए भी कर्म अनिवार्य हैं, लेकिन उसके कर्म कर्मफल से बंधे नहीं होते, क्योंकि जिस दशा में वे कर्म किए गए होते हैं, वहां किसी प्रकार का द्वैत नहीं होता । निश्चित ही कर्मों से नहीं छूटा जा सकता ।


स्थितप्रज्ञ व्यक्ति सत्य जगत में रह्ता है
प्रेषक ब्रजेश ( 25 अगस्त, 2009 - 12:01 ) ।
स्थितप्रज्ञ हुए व्यक्ति के लिए ज्ञान भक्ति तथा कर्म के विभाजन समाप्त हो जाते है वस्तुतः ये विभाजन अज्ञान जगत में ही अनुभव अनुभव होते है अज्ञान जगत में ज्ञान ,भक्ति, तथा कर्म अनिवार्य समझे जाते है परन्तु स्थित्प्रज्ञ हुए व्यक्ति के सत्य जगत में ज्ञान, भक्ति तथा कर्म ,एक हो जाते है समग्र हो जाते है स्वतःस्फूर्त समग्र हो जाते है ज्ञान भक्ति तथा कर्म का संलयन अनंत उर्जा का भन्डार होता है जो शाश्वत ,निरंतर सक्रियता स्वतः स्फूर्त रुप से उत्पन्न करता रहता है अज्ञान जगत में ज्ञान ,भक्ति, तथा कर्म अलग -अलग विकसित किए जाते है परन्तु सत्य जगत मै यह विभाजन समाप्त हो जाते है और ये एक समग्र के रुप में अविरल रुप से विकसित होने वाली अनन्त प्रक्रिया में बदल जाते हैज्ञान तथा भक्ति इस समग्र के अदृश्य तत्व है परन्तु कर्म दृश्य तत्व है ज्ञान तथा भक्ति का उच्च स्तर स्थितप्रज्ञ व्यक्ति के कर्म से ही प्रकट होता है स्थित्प्रज्ञ व्यक्ति के ज्ञान तथा भक्ति का यह उच्च स्तर एसे कर्मो से दृश्यमान होता है जो समस्त अज्ञान ,पाखन्ड,धूर्तताओ,निहित स्वार्थो से ग्रसित सत्ताखोरो, मुनाफाखोरो, धर्मखोरो,अनुभूतिखोरो को अपने दिव्य चक्षुओ से निर्वसन कर उन्हे अहंकार भय तथा तृष्णाओ से मुक्त कर मानवता की गरिमा की स्थापना के मार्ग पर लाने की अपार सामर्थ्य रखता हैस्थितप्रज्ञ व्यक्तिके लिए ज्ञान भक्ति तथा कर्म में कोई द्वैत नही होता स्थित्प्रज्ञ व्यक्ति सत्य जगत में रहता है अज्ञान से भरे विश्व मे यदि वह उपस्थित हो तो वह अज्ञान, भय ,तृष्णा,अहंकार, निहित स्वार्थो को साफ करने लगता है जब तक कि अज्ञान तथा निहित स्वार्थो के सफाए के उपरान्त सत्य जगत की स्थापना नही हो जाती वह अज्ञान जगत से भाग कर स्वयं को किन्ही अन्य अनुभूतियो में स्थिर नही करता किसी अन्य खन्ड में छुपकर कर्मफलो से मुक्ति की तृष्णा नही पालता

शुभ है
प्रेषक मनोज भारती ( 26 अगस्त, 2009 - 21:42 ) ।
आप स्थितप्रज्ञ हैं, तो शुभ है । अपने ज्ञान जगत और कर्मों से धर्म की स्थापना कर संसार को सुंदर बनाने में सहयोग करें ।

धर्म और प्रेम अनन्त = योग
प्रेषक तरुनि करिया ( 27 अगस्त, 2009 - 08:05 ) ।
मानव धर्म और मानव प्रेम सर्वोपरि है .इनका योग हो जाये तो कितना अच्छा हो !क्योंकि जुडना और जोडना ही जरूरी है .यह "योग" परम तत्व से हो या "मानव" से ,यानि आत्मा से हो या परमात्मा से , बात एक ही है , यदि इसे ठीक से समझ सकें तो .शायद कुछ इस तरह ....
मैं योग की कर कामनाकरती वियोगिनि साधना ॥
पथ प्रेम का है तब सुगमरागादि से जब मुक्ति होजब पथिक दो, पथ एक होनिष्काम हो आराधना ॥
मै योग की कर कामनाकरती वियोगिनि सधना ॥
हिम गल रहा, रवि जल रहाशशि नित्य रूप बदल रहापर इस अलॉकिक प्रेम काप्रतिकार पाना है मना ॥
मै योग की कर कामनाकरती वियोगिनि साधना ॥
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योग-साधना
प्रेषक मनोज भारती ( 27 अगस्त, 2009 - 19:56 ) ।
योग की परिभाषा पसंद आई ।
आपकी साधना पूरी हैतो वियोग अधिक समय नहींरह सकता,क्योंकि यदि आप उसकी ओरएक कदम बढ़ाती हैं, तो वह हजार कदमआपकी और बढ़ा देता है ।
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आत्मवत सर्वभूतेषू
प्रेषक ब्रजेश ( 27 अगस्त, 2009 - 21:58 ) ।
चेतनाओ के मध्य जब द्वैत समाप्त हो अद्वैत की स्थापना होती है तो अनन्त सत्य के नये, अबूझे, अज्ञात, रहस्य तथा उनमे छुपी अनन्तसम्पदाए प्रकट होने लगती है।

खंडित मनुष्य और खंडित समाज

खंडित सोच खंडित विचारवाद,
खंडित मनुष्य,खंडित समाज,
खंडित नेता, खंडित दल,खंडित लोकतंत्र,
खंडित धर्मगुरू,खंडित धर्म,खंडित धर्मतंत्र,
खंडित धनिक, खंडित धन्धे,खंडित अर्थतंत्र,
समग्र समस्याये, समग्र विचारहीनता, समग्र वैचारिक मृत्यु।
खंडित समाधान, खंडित उपचार ,खंडित समस्या निदानात्मक तंत्र।
खंडित शरीर,खंडित आत्माए,
खंडित भक्त,खंडित ईश्वर,
खंडित ज्ञान, खंडित अनुभूतियां ,
खंडित ध्यान,खंडित भक्ति, खंडित कर्म
गहन समग्र समस्याए, गहन समग्र विचारहीनता ,गहन समग्र वैचारिक मृत्यु ।
खंडित समाधान, खंडित उपचार,खंडित समस्या निदानात्मक तंत्र ....

सत्यमेव जयते एक मिथक है

शक्तिमेव जयते ही यथार्थ है। अर्धसत्य को सत्य का दर्जा देना उसे ही सत्य मानना ,मनवाना एक स्वीकार्य सामाजिक व्यवहार है। अर्धसत्य और असत्य एक ही सिक्के के दो पहलू है। प्रिय सत्य असत्य को छुपाने की एक मनभावन साजिश।
सत्य का सफलता से कोई संबंध नही है। सफलता,विजय का संबंध असत्य तथा अज्ञान से है खंडित सुख से है सत्य का संबंध जिज्ञासा, प्रेम, ध्यान,खोज से है निरीक्षण, परीक्षण और अनुभवो से है उद्वविकास से है अनंत आनंद से है
सत्यमेव जयते एक मिथक है अज्ञान जगत का पाखंड है जो तथाकथित अर्थनेताओ,धर्मनेताओ तथा राजनेताओ की असत्य की अज्ञान की दुकान चलाने मे सहायक होता है
सत्य का विजय से कोई संबंध नही ,सत्य का तथाकथित धर्म[पंथ] तथा उससे जुडे कर्मकांडो से भी कोई संबंध नही है सत्य स्वयं ही धर्म है आप उसे धारण नही कर सकते, अपितु वो ही आपको धारण किये हुए है परंतु आप उसका बोध अवश्य कर सकते है क्योकि आप उस अनंत सत्य का अविभाज्य अंग है आपको उसी से उत्पन्न तथा उसी में विलीन होना है

Wednesday, December 2, 2009

DEAR VIKRAM

I am very happy to accept your kind and polite challenge. respectfully I would say that you should not apologize if your school of thought differ from my thoughts .here I would add one more thing that there is nothing personal in different school of thoughts, but because of the ego of so-called intellectuals, all of us are bound to speak or write in such a manner.
In the world of ego or in the trap of the bounded intelligence we are not left the eternal creator of thoughts but mere a bundle of memories or the slave of our thoughts, in the lack of correct thought patterns. Self respect and your present thoughts are different things your self respect will remain with you till you survive but as you are an eternal creator of thoughts, your thoughts will bloom and wither just like the realities and you will march ahead on the perception of truth till you survive on this beautiful planet.
The only substantial difference between true intellectual and fake intellectual is that true intellectual always entertain the thoughts that opposes his perception of truth and very curiously examine, analyze, inspect, observe and experiment each and every thought to explore the eternal truth.
The great question lies here before the super minds is to find the truth behind the god made world and the reality behind the man made world to make this world a better living place for all.
For the seekers of truth, ego of intellectual is irrelevant the only relevant thing is to explore the truth at any cost. As swami vivekanand said, “Any thing can be sacrificed for truth”
Now let me come to your present point of view, you expressed here in the reaction of the blog Astrology false but highly money-making product of bounded intelligence
I said that “Astrology is a residual of ancient outlooks has no substance that can face the scientific procedures”,
You said “how many ancient outlooks can a modern man describe? It is a very bold statement and any bold statement ought to be supported by logical facts”
I think that before going through the other ancient out looks it would be better to focus on the astrology.
I raise some questions here for the supporter of astrology and astrologers-
If astrology claims it is a science why it does not adopt the scientific procedures and the confirmation tests to develop the principal and theories.
If it is not the science then what is, it is intuition or the illusion of bounded intelligence.
I challenge on this forum nobody can predict the course of social and evolutionary natural events because unpredictability is a rule of eternal truth. If any body differ my point of view come ahead and prove me wrong by predicting the course of social and natural events of the human beings and other living beings of this planet.
I hope that seekers of truth will come ahead to prove me right or wrong with straight forward scientific and logical facts.
Now let me come to your next thought-
You said that- how many ancient outlooks can a modern man describe?
The answer is-
Blind faith is also a residual of ancient’s outlooks, which kill the curiosity and bound the human being to act in superstitious manner. when a person offer a crown worth crores of rupees to the statue of man made various gods ,he has all the rights to say that he can spent his money in his own way but a sensible person will not accept these practices of wasting money in the name of so-called faith.
It was the blind faith of so called modern man when they were feeding lord ganesha with milk all over India and abroad.
The false stories of Lunar and solar eclipse are known to all. Sun is a star but astrologers claim it to be planet.
Untouchability and caste system are also residuals of ancient thoughts.
Tantra and human sacrifice, secondary status of women are also residuals of ancient thoughts,
The list is very big but I think the massage I want to give would be clear to all who are in agreement with you,
Now let me come to some holistic thoughts of ancient wisdom which are used by so-called modern intellectuals very often without knowing and using the true spirit of thoughts.
“VASUDHEV KUTUMBKAM” means the whole world is a family.
“JEEVAN SATYA SHODHANAM” means life is to explore the truth.
“Don’t hate the human being hate the evil” this thought tells us to explore the roots and genesis of evil in place of killing the human beings as a threat to humanity in the name of ego based identities of caste ,creeds, races, sects, cultures, subculture, elite class, deprived class…….)
The truth is that identity of human being is lost and the human being an eternal source of holistic energy is continuously shrinking to ego based identities and creating destruction every where in the name of communalism, naxalism, terrorism, war, law and order, communism, capitalism, blind faiths………)
You can visualize and realize by your curious and sensitive intelligence, the poisonous residuals of ancient thoughts coupled with modern destructive technology, are rampaging everywhere killing the humanity and planet senselessly.
But I claim and challenge the whole world, they would never be able to realize and visualize the elixir of ancient thoughts without adopting the path of nonviolence and truth with the help of inbuilt eternal intelligence of human being, to correct there thought patterns and feel patterns to unravel the grip of ego.
Present human being is just like a Hanuman of Ramayana who did not know his enormous strength,
I again appeal the whole world go ahead and enquire, the jesus and buddha were the very normal and common human being like you and me, so get awake and start the journey from the point where jesus and buddha left.
Now let me come to your third thought-
You said “Still I feel that things are actually not the way as we see them, because we are really far from the vision that is required to know ETERNAL TRUTH.”
My answer is-
It is the ego or the bounded intelligence that makes the distorted vision that is incapable to realize the eternal truth. Eternal truth is every where inside or outside, in the microscopic world and macroscopic world, in the finite bodies and in the eternity. we are not far from the eternal truth it is again the bounded intelligence or the ego that compel us to think, feel and visualize the whole not as a whole but in isolated fragments.
In my very first blog from fragment to totality I dealt with this problem that has been challenging the human intelligence over the centuries.
I am repeating that blog to clear my point of view.
Universe, environment, nature, life, man & society are a process not the events in isolation. When we think in terms of process we connect to the eternal process of evolution that helps us to understand the different happenings in a broad and true manner. But when we focus to events in isolation without knowing it’s scientific connection to the eternal process we fail to understand it’s evolution in true manner .The event based studies always produce the fragmented picture of totality.
It is the ego that fragments the whole in all respects, but eternal truth unifies the diversity to continue the eternal evolutionary process.
In conclusion I would like to say that The elixir of ancient thoughts is capable enough to develop the perception of truth and when it is joined with the scientific outlooks and procedures (the great invention of modern man) it generate the enormous potential in human being to kill the ego or bounded intelligence from every spheres of life.
I always feel happy from the core of my heart when sensitive personalities like you challenge me.I hope that you will not quit in the middle of discussion. I am waiting for your kind message.

Astrology false but highly money-making product of bounded intelligence

Astrology is nothing but the illusion of bounded intelligence or the guess work in the skin of science. It is a poison for eternal curiosity and eternal love and has tremendous potential to blocks the scientific outlooks; it reinforces the bounded intelligence and provides an ideological shield for fake leaders and gurus.
Astrological predictions can’t enhance the quality of life but has enormous potential to make you fool on the very simple ground that lot of people believes on this.
Astrology is a residual of ancient outlooks has no substance that can face the scientific procedures but because most of the people even in the modern world don’t apply scientific outlooks on the ancient knowledge and it is a saleable item also that’s why it is still existing just like various other superstitions.
Scientifically you can predict the direction of social process but even science can never predicts the course of social events, when, where and how the event would happen exactly.
Eternal truth that is behind the evolutionary process of this universe always keeps the uncertainty; in course of events it is a scientifically approved fact.
But when astrologer and the supporters of astrology say that astrology is a science they negate the principle of uncertainty. Either they don’t know the nature of science and scientific outlook or they are the true disciple of bounded intelligence not interested in the process required to know the truth.
Science is not capable to predict the course of natural and social events. But on the basis of science, astrology claims it can predict the future of human being. Without any scientific evidence it is ridiculous to say that astrology can predict the course of events.
How a sensible person can accept that astrology has the potential to predict the uncertainty which even science can’t predict.
Let me explain the uncertainty of eternal truth by the example –
Look at the evolution of life on this planet
In the first phase of life dinosaurs dominates the planet but human being was nowhere in the scene.
In the second phase of life human being as Homo sapiens appeared about 40000 years ago among the different kind of flora and fauna.
Compare both the process of evolution of life that happened on the same planet you will see that second phase of evolution is quite different from the first one. It shows that eternal truth always keeps the course of events unpredictable.
Astrology is nothing but the illusion of bounded intelligence because most of the people have illogical faith on it that’s why it is still alive like various other superstitions.
Astrology never follows the scientific procedures; astrology has no scientifically approved principal or a theory that’s why the fake knowledge of astrology is used by different astrologers in different ways to exploit the greed and fear of man and society.
Do one experiment with your astrologer-
Take a coin, throw it and ask your astrologer which way the coin would fall. You too forecast which way the coin would fall. You will find that your guesswork is not poor from the guesswork of the astrologer.
Do the second experiment with your astrologer-
Pick the four ants and tell your astrologer that you are going to kill the two ants, can he predicts which ants are going to be killed.
Do third experiment with your astrologer-
Take out your fully loaded revolver and pick three bullets out and revolve it, now ask your astrologer that can he predict when the revolver would kill him and when not.
I am sure your astrologer would runaway from the site and will never face to the direction where he will see you.
Thousands of experiments can be made by eternal intelligence to baffle the fake knowledge of the astrologers.
Scientifically you can predict the direction of social process but can never predicts the course of events, when and where the event would happen exactly. When and where terrorist will make successful attack, when saddam would be hanged, when laden would be killed or be caught, when society will respect the dignity of every human being, When the man and society would be ruled by the leaders of the eternal intelligence on the ground of wisdom and nonviolence nobody can predicts exactly.
Astrologers always use the greed and fear of the human being, and in the world of bounded intelligence they can easily convince their clients. Astrology can survive only in the world of bounded intelligence. In the world of eternal intelligence astrology can’t survive.
When most of the people would come out of these faulty thought patterns, definitely on that day we would go one step ahead for the making of the better world.

1:Brijesh ji,I have read your article many times to know the message, but sir; I sincerely apologize to differ from you. However, neither do I have any knowledge of Astrology nor do I have a solid science background, still I feel that things are actually not the way as we see them, because we are really far from the vision that is required to know ETERNAL TRUTH.You have said that “Astrology is a residual of ancient outlooks has no substance that can face the scientific procedures”, how many ancient outlooks can a modern man describe?It is a very bold statement and any bold statement ought to be supported by logical facts. In fact, the BOUNDED INTELLIGENCE is the intelligence which does not let a person see the reality….or that does not allow a person to see out of four walls of his ego, ignorance and greed. Sir, no offence but you or I do not have those eyes to judge things from critics’ angle, I am writing all this because I really did not find this article, adhering to the required norms….By no means, do I wish to challenge your authority over the subjects or your intention to share them.I hope you would understand the motive of this reply. I have read many of your blog and more or less I am in agreement with most of your school of thoughts….but not with this one.I again apologize for being so upfront…All the Best!!!Vikram