अगस्त 10th, 2009 मनोज भारती
महर्षि रमण से किसी ने पूछा कि सत्य को जानने के लिए मैं क्या सीखूं ? श्री रमण ने कहा जो जानते हो उसे भूल जाओ । यह उत्तर बहुत अर्थपूर्ण है । मनुष्य का मन बाहर से संस्कार और शिक्षाएं लेकर एक कारागृह बन जाता है। बाह्य प्रभावों की धूल में दबकर उसकी स्वयं की दर्पण जैसी निर्मलता ढक जाती है । जैसे किसी झील पर कोई आवृत्त हो जाए और सूर्य या चंद्रमा का प्रतिबिम्ब उसमें न बन सके । ऐसे ही मन भी बाहर के सीखे गए ज्ञान से इतना आवृत्त हो जाता है कि सत्य का प्रतिफलन उसमें नहीं हो पाता । ऐसे मन के द्वार और झरोखे बंद हो जाते हैं । वह अपनी ही क्षुद्रता में सीमित हो जाता है , और विराट के संपर्क से वंचित । इस भांति बंद मन ही बंधन है । सत्य के सागर में जिन्हें संचरण करना है, उन्हें मन को सीखे हुए किसी भी खूंटे से बांधने का कोई उपाय नहीं है । तट से बंधे होना और साथ ही सागर में प्रवेश कैसे संभव है ?
एक पुरानी कथा है - एक संन्यासी सूर्य निकलने के पूर्व ही नदी में स्नान करने उतरा, अभी अंधियारा था और भोर के अंतिम तारे डूबते थे । एक व्यक्ति नाव पर बैठकर पतवार चलाता था, किंतु नाव आगे नहीं बढ़ती थी । अंधरे के कारण उसे वह सांकल नहीं दिखती थी, जिससे नाव बंधी हुई थी । उसने चिल्ला कर संन्यासी से पूछा कि स्वामी जी इस नाव को क्या हो गया है। उस संन्यासी ने कहा, मित्र पहले खूंटे से बंधी उसकी सांकल को तो खोलो । मनुष्य जो भी बाहर से सीख लेता है, वह सीखा हुआ ज्ञान ही खूंटों की भांति उसके चित्त की नाव को अपने से बांध लेता है और आत्मा के सागर में उसका प्रवेश संभव नहीं हो पाता । जिसे परमात्मा के ज्ञान को पाना हो उसे बाहर से सीखे गए अपने ज्ञान को छोड़ देना होगा । इस अवस्था को दिव्य अज्ञान कह सकते हैं । इसे साध लेने से बड़ी और कोई साधना नहीं है ।
कुछ भी जानने का भाव अहंकार को पुष्ट करता है । इसीलिए उपनिषद् के ऋषियों ने कहा है कि जो कहे कि मैं जानता हूँ, तो जानना कि, वह नहीं जानता । जो जानते हैं, उनका तो मैं खो जाता है । बाहर से आया हुआ ज्ञान मैं को भरता है; भीतर से जगा हुआ ज्ञान उसे बहा ले जाता है । ज्ञान को पाने की विधि है कि सब ज्ञान को छोड़ दो । मैं को शून्य होने दो और चित्त को मौन । उस मौन और शून्यता में ही उसके दर्शन होते हैं जो कि सत्य है ।ज्ञान नहीं विचार सीखे जा सकते हैं । विचारों के संग्रह से ही ज्ञान का भ्रम पैदा हो जाता है । विचार कम हो सकते हैं; विचार ज्यादा भी हो सकते हैं । ज्ञान न तो कम होता है और न ज्यादा होता है । या तो ज्ञान होता है या अज्ञान होता है । यह भी स्मरण रहे कि विचार अज्ञान का अंग है । केवल अज्ञानी ही विचार करता है । ज्ञानी विचारता नहीं देखता है । जिसके आंख है, उसे दिखाई पड़ता है । वह सोचता नहीं कि द्वार कहां है, वह तो द्वार को देखता है। जिसके पास आंख नहीं, वह सोचता है और टटोलता है, विचार टटोलना मात्र है । वह आंख का नहीं अंधे होने का प्रमाण है । बुद्ध, महावीर या ईसा विचारक नहीं हैं । हमने सदा ही उन्हें द्रष्टा कहा है । वे जो भी जानते हैं, वह उनके चिंतन का परिणाम नहीं, उनके दर्शन की प्रतीति है । वे जो भी करते हैं, वह भी विचार का फल नहीं है । उनकी अंतर्दृष्टि की सहज निष्पत्ति है । इस सत्य को समझना बहुत आवश्यक है ।
विचारों का संग्रह कहीं भी नहीं ले जाता । सभी प्रकार के संग्रह दरिद्रता को मिटाते नहीं, दबाते हैं । इसी लिए जो सर्वाधिक दरिद्र होते हैं, संग्रह की इच्छा भी उनकी सर्वाधिक होती है । डायोजनीज ने सिकंदर को कहा था, मैं इतना समृद्ध हूँ कि मैं कुछ भी संग्रह नहीं करता । और तेरी दरिद्रता का अंत नहीं, क्योंकि इस पूरी पृथ्वी के साम्राज्य को पा लेने पर भी तुम संग्रह करोगे । इसी लिए जब सम्राटों को संग्रह में छिपी दरिद्रता के दर्शन हुए हैं, तो उन्होंने दरिद्रता में छिपे साम्राज्य को स्वीकार कर लिया । क्या मनुष्य का इतिहास ऐसे भिखारियों से परिचित नहीं, जिनसे सम्राट बड़े कभी नहीं होते । जो धन संग्रह के संबंध में सत्य है, वह सभी प्रकार के संग्रहों के लिए भी सत्य है । विचार संग्रह भी उसका अपवाद नहीं । बाह्य संपत्ति के संग्रह से जो धनी है; वह यदि दरिद्र है, तो शास्त्रों के शब्दों से जो ज्ञानी है, वह भी अज्ञानी ही है ।शास्त्र से नहीं, जब स्वयं से और जब शब्द से नहीं बल्कि अंतस से आलोक मिलता है, तभी ज्ञान का आविर्भाव होता है ।
ज्ञान का जन्म ध्यान से होता है । ध्यान का अर्थ है : विचार छोड़कर चेतना में प्रतिष्ठित हो जाना । विचारों के प्रवाह का नाम मन है । जो इन विचारों के प्रवाह को देखता है, उसका नाम चेतना है । विचार विषय है और चेतना विषयी । विचार दृश्य है, चेतना द्रष्टा । विचार जाने जाते हैं, चेतना जानती है । विचार बाहर से आते हैं, चेतना भीतर है । विचार पर है, चेतना स्व है । विचारों को छोड़ना है और चेतना में ठहरना है । सब धर्मों की साधना का सार यही है ।
विचार प्रवाह के सम्यक् निरीक्षण से तथा तटस्थ साक्षी भाव से मात्र उन्हें देखने से वे धीरे-धीरे क्षीण हो जाते हैं । जैसे कोई बिल्ली चूहे को पकड़ती हो तो पकड़ने के पूर्व उसकी तैयारी पर ध्यान दें । कितनी सजग और कितनी शांत, कितनी शिथिल और तैयार ! ऐसे ही स्वयं के भीतर विचार को पकड़ने के लिए होना पड़ता है । जैसे ही कोई विचार उठे, बिल्ली की भांति झपटें और उसे पकड़ लें । उसे उलटें-पलटें और उसका निरीक्षण करें । किंतु उसे सोचे नहीं, मात्र देंखें । और तब पाया जाता है कि वह देखते ही देखते वाष्पीभूत हो गया है। हाथ खाली और विचार विलीन हो जाता है । फिर शांत और सजग रहें । दूसरा विचार आएगा, उसके साथ भी यही करना । तीसरा आएगा, उसके साथ भी यही । इस प्रकार ध्यान का अभ्यास करना । जैसे-जैसे अभ्यास गहरा होता है, वैसे-वैसे बिल्ली बैठी रह जाती है और चूहे विलीन हो जाते हैं । चूहे जैसे बिल्ली से डरते हैं, विचार वैसे ही ध्यान से डरते हैं । बिल्ली जैसे चूहों की मृत्यु है, ध्यान वैसे ही विचारों की मृत्यु है ।
विचार की मृत्यु पर सत्य का दर्शन होता है । तब मात्र वही शेष रह जाता है- जो है । वह सत्य है । वही परमात्मा है । उसे जानने में ही मुक्ति है और दुख व अंधकार का अतिक्रमण है ।
(यह लेख ओशो देशना पर आधारित है।)
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स्वयं की मुक्ति की तृष्णा या भौतिक सुखो की प्राप्ति की तृष्णा
प्रेषक ब्रजेश ( 21 अगस्त, 2009 - 22:02 ) ।
अध्यात्म के मार्ग पर चलकर स्वहित की पूर्ति या भौतिक मार्ग पर चलकर स्वहित की पूर्ति या फिर भौतिकता तथा आध्यात्मिकता के मध्य सन्तुलन बनाते हुए स्वहितो की पूर्ति करने वाले लोग एक ही थैली के सिक्के है ये सभी सिक्के चमकदार है सदियो से बुद्धिमान अनुनाई इनका स्वहित में उपयोग करते आए है स्वयं की मुक्ति के आनन्द तथा भौतिक सुखो के आनन्द में डूबे रहे हैसमाज की मुक्ति, मानवता की मुक्ति, गरीबी से मुक्ति, भ्रष्टाचार से मुक्ति, अनुनाईयो को निहित स्वार्थो से मुक्ति दिलाने के प्रश्नो के उत्तर खोजने के नाम पर इन सभी मार्गो पर चलने वाले लोग या तो वैचारिक मृत्यु का वरण कर लेते है या मौन हो जाते है इन निरर्थक प्रश्नो पर ध्यान देकर अपने निहित स्वार्थो की पूर्ति में लगी ऊर्जा को कम नही करना चाहते या दुनियां ऐसे ही चलती है इस दर्शन में अटूट आस्था रखते है निहित स्वार्थो, महत्वकांक्षाओ से भरे एसे लोग सदैव मानवता पर बोझ रहे हैबुद्ध, ईसा, अशोक्,मार्क्स्,गांधी जैसे लोगो ने मनुष्य तथा समाज के लिए प्रखर चिन्तन मनन करते हुए नूतन संस्कृति निर्माण की कई सम्भावनाए दिखाई पर ईसा को सूली से गांधी को गोली तक समाज में विध्यमान कचरा प्रवृत्तियां नही बदलीमनुष्य की मुक्ति की बात बहुत कर ली अब मानवता की मुक्ति की बात करो साधको
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स्थितप्रज्ञ
प्रेषक मनोज भारती ( 21 अगस्त, 2009 - 22:18 ) ।
जो स्वयं में स्थित है,स्थितप्रज्ञवह न स्वयं की मुक्ति की कामना करताऔरन ही भौतिक सुखों की प्राप्ति की इच्छा रखतावह तोजीवन को आनंद से जीता हैऔर जोआनंद में है वह मुक्त है ।
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निष्क्रिय स्थितप्रज्ञ या कृष्ण सदृश सक्रिय स्थितप्रज्ञ
प्रेषक ब्रजेश ( 22 अगस्त, 2009 - 08:29 ) ।
किसी विचार, किसी भाव ,धारणा या प्राप्त ज्ञान का संरक्षण या पुनराव्रत्ति अपने पूर्ववर्तियो के द्वारा की गई गलतियो का दोहराव मात्र है सत्य अनंत है इसकी निरन्तर साधना की प्रक्रिया से मिलने वाला आनंद भी अनंत है सत्य की झलक मिलते ही आप अभय की ओर गमन करने लगते है तृष्णाओ से मुक्त होने लगते है और अनंत प्रज्ञा आपके अंदर आलोकित होने लगती है जो आपको स्वतःस्फूर्त अनंत सक्रियता के साथ जीवन का सर्वांगीण आनंद उठाने के लिए ऊर्जावान बनाए रखती है
सदियो से यह विश्व दोहराव या अच्छी पुनराव्रत्ति करने वाले लोगो से प्रेरित होता रहा है इसी कारण इतिहास अपने को दोहराता हैजिसे सत्य की झलक मात्र मिल जाती है वह धर्म और न्याय की स्थापना के लिए अर्जुन की तरह सक्रिय हो जाता है सत्य की खोज वैचारिक म्रत्यु नही अपितु धर्म की स्थापना हेतु अनंत प्रज्ञा को जाग्रत करती है
स्थितप्रज्ञ
प्रेषक मनोज भारती ( 22 अगस्त, 2009 - 09:36 ) ।
स्थितप्रज्ञ के साथ कृपया कोई विशेषण न लगाएँ ।अनुभूति ...
वैचारिक मृत्यु या जाग्रत अनन्त प्रज्ञा
प्रेषक ब्रजेश ( 22 अगस्त, 2009 - 17:14 ) ।
अनुभूति जो वैचारिक मृत्यु या विचारशून्यता लाकर मृत्यु सिखाए या फिर जो इससे ऊपर उठते हुए अधिकांश साधको के अंदर सुप्तावस्था में बैठी अनन्त प्रज्ञा को जाग्रत कर धर्म की स्थापना के लिये साधको को सक्रिय करे
साक्षी-भाव
प्रेषक मनोज भारती ( 22 अगस्त, 2009 - 18:53 ) ।
साक्षी भाव का दूसरा नाम विचार शून्यता है ।विचार शून्यता का मतलब जड़ता या मृत्यु नहीं है ।जब चेतना प्रज्ञा में स्थित होती है, तो वह निश्चल होती है ।और एक शौरगुल भरे मन से अधिक सजग होती है ।वहां जो भी ग्राह्य होता है वही अमृत है।वही धर्म है
मात्र धर्म की साधना या धर्म की स्थापना भी
प्रेषक ब्रजेश ( 22 अगस्त, 2009 - 19:29 ) ।
धर्म मात्र स्वार्थ के लिए या सर्वार्थ के लिए dharm का अर्थ जानना मात्र ही धर्म या उसका अर्थ बोध करते हुए उसकी स्थापना के लिए कर्मक्षेत्र में उतरना भी
स्व और पर का भेद नहीं असीम अनंत सत्ता का बोध
प्रेषक मनोज भारती ( 22 अगस्त, 2009 - 20:59 ) ।
साक्षी में, स्थितप्रज्ञता में स्व और पर का भेद नहीं रहता ।वहां अनंत सत्ता है । वहां सब संबंधित हैं । वहां असीम विस्तार है ।धर्म खाली शब्द नहीं जिसका कि किन्हीं दूसरे शब्दों में अर्थ बतलाया जा रहा है । जब आप उस अमृत दशा में होते हैं तो बोध ही होता, न कि मात्र शब्दों का खेल और आप इस अवस्था में जो भी कर्म करते हैं वह मानव कल्याण के लिए ही होता है ।
अमृत दशा में पहुंचा व्यक्ति कर्मयोगी हो जाता है
प्रेषक ब्रजेश ( 22 अगस्त, 2009 - 22:14 ) ।
बुद्ध्,महावीर्,ईसा,कबीर, नानक, मार्क्स्,आइंसटाइन्,गांधी जैसे महापुरुष कर्मयोगी थे समाज से जो भी लिया उसे परिष्क्रत कर समाज को जीवनपर्यंत वापस करते रहेस्थितप्रज्ञता और धर्म कोई स्थिर भाव या बोध नही,अपितु स्वतःस्फूर्त विकासमान बोध है जो दृश्य और अदृश्य या इससे भी परे जगत में व्याप्त अनंत सत्य की अनवरत खोज में सहायक है स्थितप्रज्ञता प्रज्ञा को अनंत ऊर्जा से भर चेतना को अनंत सक्रिय बना देती है और इस अवस्था मै पहुंचे व्यक्ति अनंत सत्य के अनेको रहस्यो को मनुष्य समाज पर्यावरण के हित में अनावरित करते है
कर्म साधन है और धर्म साध्य
प्रेषक मनोज भारती ( 22 अगस्त, 2009 - 22:58 ) ।
कर्मयोगी का अर्थ है : जो कर्म के द्वारा उस दशा (स्थितप्रज्ञता, धर्म में प्रतिष्ठा) को प्राप्त करता है । इस दशा को अन्य मार्गों से भी पाया जा सकता है । कर्म साधन है और धर्म, स्थितप्रज्ञता साध्य । ऐसा नहीं है कि जो व्यक्ति स्थितप्रज्ञ है, वह अकर्मण्य हो जाता है । बल्कि उसके कर्मों में तो एक असाधारणता होती है ।
हमें ऐसे स्थितप्रज्ञ व्यक्ति के कर्मों की असाधारणता दिखाई पड़ती है । लेकिन उन कर्मों के पीछे कितनी साधना और सजगता का जीवन है, यह हम नहीं देखते । यहीं से समझ का अभाव दिखाई पड़ता है । हम परिणाम (फल) को देखते हैं, लेकिन उसके पीछे की साधना (जड़) को अनदेखा कर देते हैं ।
स्थित्प्रज्ञता दिव्य चक्षु है
प्रेषक ब्रजेश ( 23 अगस्त, 2009 - 07:03 ) ।
तोता राम राम कहने से राम की महिमा नही जान जाता ठीक इसी प्रकार मात्र अनुभूति करके कोई स्थित प्रज्ञ नही हो जाता, स्थितप्रज्ञता की अनुभूति उस परम सत्य की अनंतता का ज्ञान प्राप्त करने का दिव्य चक्षु है जो धारणाओ के पिंजडे में बन्द तोता वाणी नही अपितु धर्म राजनीति मनुष्य समाज संस्कृति सभ्यता अर्थनीति आदि अनेको क्षेत्रो को भी आपके लिए पारदर्शी बना देने वाली अनुभूति हैइस अनुभूति रुपी दिव्य चक्षु के उत्पन्न होते ही चहुंओर व्याप्त पाखंड धूर्तताए,स्वार्थ वे सभी कितने ही मुखौटे क्यों न लगा ले, आपके अंतर्जगत ,बाह्य जगत कही भी अपने को छुपाने की सामर्थ्य खो बैठती है यह दिव्य चक्षु समग्र के जिस भाग पर भी दृष्टि डालता है वह भाग उसके सामने निर्वसन होने लगता है उसके समस्त मुखौटे उतर जाते है और वह भाग अपने सच्चे रुप में प्रकट हो जाता हैस्थितप्रज्ञता को प्राप्त व्यक्ति के अंदर मनुष्य तथा समाज के अंदर विध्यमान अंधविश्वाशो पाखंडो धूर्तताओ निहित स्वार्थो का उपचार करते हुए स्वतःस्फूर्त रूप से मनुष्य तथा समाज को धर्म की,न्याय की, स्थापना की ओर ले जाने की अपार सामर्थ्य होती है और वह इस अपार सामर्थ्य का स्वार्थ में नही सर्वार्थ के उपयोग के लिए कर्मक्षेत्र में उतरता ही है
स्थितप्रज्ञता और कर्मफल
प्रेषक मनोज भारती ( 24 अगस्त, 2009 - 19:10 ) ।
कोई भी अनुभूति स्थितप्रज्ञ नहीं होती । लेकिन स्थितप्रज्ञ पुरुष को जो अनुभुति होती है, वह स्वच्छ अंत:करण से होती है और ऐसी दृष्टि में निश्चित ही चीजों को उनके अंतरतम से भेद देने की शक्ति होती है और ऐसी दृष्टि हर चीज को निश्चित ही उघाड़ कर उसे उसके वास्तविक रूप में प्रस्तुत कर देती है ।प्रिय मित्र !!! आपका जोर कर्म पर है, मैं आपके भाव को समझ रहा हूँ । पर मैंने यह भी कहा कि एकमात्र कर्म ही धर्म प्रतिष्ठा, स्थितप्रज्ञता का मार्ग नहीं है, इसके अतिरिक्त भक्ति और ज्ञान के मार्ग भी हैं । लेकिन किसी भी पुरुष के लिए कर्म निश्चित रूप से जरूरी होता है । कोई भी व्यक्ति कर्म से बच नहीं सकता । सांस लेना, चलना,उठना, बैठना, पढ़ना, जैसे सामान्य कार्य ऐच्छिक या अनैच्छिक सभी कर्म हैं । कर्म का क्षेत्र विस्तृत है । किसी भी मार्ग से स्थितप्रज्ञ हुए व्यक्ति के लिए भी कर्म अनिवार्य हैं, लेकिन उसके कर्म कर्मफल से बंधे नहीं होते, क्योंकि जिस दशा में वे कर्म किए गए होते हैं, वहां किसी प्रकार का द्वैत नहीं होता । निश्चित ही कर्मों से नहीं छूटा जा सकता ।
स्थितप्रज्ञ व्यक्ति सत्य जगत में रह्ता है
प्रेषक ब्रजेश ( 25 अगस्त, 2009 - 12:01 ) ।
स्थितप्रज्ञ हुए व्यक्ति के लिए ज्ञान भक्ति तथा कर्म के विभाजन समाप्त हो जाते है वस्तुतः ये विभाजन अज्ञान जगत में ही अनुभव अनुभव होते है अज्ञान जगत में ज्ञान ,भक्ति, तथा कर्म अनिवार्य समझे जाते है परन्तु स्थित्प्रज्ञ हुए व्यक्ति के सत्य जगत में ज्ञान, भक्ति तथा कर्म ,एक हो जाते है समग्र हो जाते है स्वतःस्फूर्त समग्र हो जाते है ज्ञान भक्ति तथा कर्म का संलयन अनंत उर्जा का भन्डार होता है जो शाश्वत ,निरंतर सक्रियता स्वतः स्फूर्त रुप से उत्पन्न करता रहता है अज्ञान जगत में ज्ञान ,भक्ति, तथा कर्म अलग -अलग विकसित किए जाते है परन्तु सत्य जगत मै यह विभाजन समाप्त हो जाते है और ये एक समग्र के रुप में अविरल रुप से विकसित होने वाली अनन्त प्रक्रिया में बदल जाते हैज्ञान तथा भक्ति इस समग्र के अदृश्य तत्व है परन्तु कर्म दृश्य तत्व है ज्ञान तथा भक्ति का उच्च स्तर स्थितप्रज्ञ व्यक्ति के कर्म से ही प्रकट होता है स्थित्प्रज्ञ व्यक्ति के ज्ञान तथा भक्ति का यह उच्च स्तर एसे कर्मो से दृश्यमान होता है जो समस्त अज्ञान ,पाखन्ड,धूर्तताओ,निहित स्वार्थो से ग्रसित सत्ताखोरो, मुनाफाखोरो, धर्मखोरो,अनुभूतिखोरो को अपने दिव्य चक्षुओ से निर्वसन कर उन्हे अहंकार भय तथा तृष्णाओ से मुक्त कर मानवता की गरिमा की स्थापना के मार्ग पर लाने की अपार सामर्थ्य रखता हैस्थितप्रज्ञ व्यक्तिके लिए ज्ञान भक्ति तथा कर्म में कोई द्वैत नही होता स्थित्प्रज्ञ व्यक्ति सत्य जगत में रहता है अज्ञान से भरे विश्व मे यदि वह उपस्थित हो तो वह अज्ञान, भय ,तृष्णा,अहंकार, निहित स्वार्थो को साफ करने लगता है जब तक कि अज्ञान तथा निहित स्वार्थो के सफाए के उपरान्त सत्य जगत की स्थापना नही हो जाती वह अज्ञान जगत से भाग कर स्वयं को किन्ही अन्य अनुभूतियो में स्थिर नही करता किसी अन्य खन्ड में छुपकर कर्मफलो से मुक्ति की तृष्णा नही पालता
शुभ है
प्रेषक मनोज भारती ( 26 अगस्त, 2009 - 21:42 ) ।
आप स्थितप्रज्ञ हैं, तो शुभ है । अपने ज्ञान जगत और कर्मों से धर्म की स्थापना कर संसार को सुंदर बनाने में सहयोग करें ।
धर्म और प्रेम अनन्त = योग
प्रेषक तरुनि करिया ( 27 अगस्त, 2009 - 08:05 ) ।
मानव धर्म और मानव प्रेम सर्वोपरि है .इनका योग हो जाये तो कितना अच्छा हो !क्योंकि जुडना और जोडना ही जरूरी है .यह "योग" परम तत्व से हो या "मानव" से ,यानि आत्मा से हो या परमात्मा से , बात एक ही है , यदि इसे ठीक से समझ सकें तो .शायद कुछ इस तरह ....
मैं योग की कर कामनाकरती वियोगिनि साधना ॥
पथ प्रेम का है तब सुगमरागादि से जब मुक्ति होजब पथिक दो, पथ एक होनिष्काम हो आराधना ॥
मै योग की कर कामनाकरती वियोगिनि सधना ॥
हिम गल रहा, रवि जल रहाशशि नित्य रूप बदल रहापर इस अलॉकिक प्रेम काप्रतिकार पाना है मना ॥
मै योग की कर कामनाकरती वियोगिनि साधना ॥
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योग-साधना
प्रेषक मनोज भारती ( 27 अगस्त, 2009 - 19:56 ) ।
योग की परिभाषा पसंद आई ।
आपकी साधना पूरी हैतो वियोग अधिक समय नहींरह सकता,क्योंकि यदि आप उसकी ओरएक कदम बढ़ाती हैं, तो वह हजार कदमआपकी और बढ़ा देता है ।
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आत्मवत सर्वभूतेषू
प्रेषक ब्रजेश ( 27 अगस्त, 2009 - 21:58 ) ।
चेतनाओ के मध्य जब द्वैत समाप्त हो अद्वैत की स्थापना होती है तो अनन्त सत्य के नये, अबूझे, अज्ञात, रहस्य तथा उनमे छुपी अनन्तसम्पदाए प्रकट होने लगती है।
Saturday, December 19, 2009
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